नई दिल्ली, 28मार्च। देश के सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने मीडिया की स्वतंत्रता बनाए रखने को लेकर निचली अदालतों को बड़ा निर्देश दिया है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया समूह ‘ब्लूमबर्ग’ से जुड़ी अवमानना याचिका के मामले में चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने अदालतों से मीडिया घरानों के खिलाफ प्रतिबंधात्मक आदेश पारित करते समय “सावधानीपूर्वक चलने” के लिए कहा है।
पीठ ने कहा कि अदालत को प्रथम दृष्टया आरोपों की गुणवत्ता की जांच किए बिना मीडिया घरानों के खिलाफ एकतरफा प्रतिबंध आदेश पारित करने से बचना चाहिए। इसमें कहा गया है, “किसी आर्टिकल के छपने के खिलाफ प्री-ट्रायल निषेधाज्ञा देने से लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जनता के जानने के अधिकार पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।।”
इस टिप्पणी के साथ शीर्ष अदालत ने देश की मशहूर मीडिया समूह के खिलाफ कथित तौर पर अपमानजनक समाचार लेख का प्रकाशन रोकने वाले ट्रायल कोर्ट के आदेश को भी निरस्त कर दिया।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया समूह ‘ब्लूमबर्ग’ पर ‘जी एंटरटेनमेंट’ के खिलाफ अपमानजनक लेख लिखने का आरोप है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने कहा, ‘‘समाचार के खिलाफ सुनवाई पूर्व निषेधाज्ञा प्रदान करने से इसे लिखने वाले की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जानकारी प्राप्त करने के लोगों के अधिकार पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।’’
सुप्रीम कोर्ट में तीन जजों की पीठ में न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा भी शामिल थे। न्यायालय ने कहा कि यह तय किए बिना एक पक्षीय निषेधाज्ञा जारी (Ex-Parte Injunction) नहीं की जानी चाहिए कि जिस सामग्री को निषिद्ध करने का अनुरोध किया गया है वह दुर्भावनापूर्ण एवं झूठी है।
पीठ ने कहा कि दूसरे शब्दों में मुकदमे का ट्रायल शुरू होने से पहले लापरवाही से (cavalier manner) अंतरिम निषेधाज्ञा जैसे आदेश ‘सार्वजनिक बहस का गला घोंटने की तरह’ हैं। सीजेआई चंद्रचूड़ की पीठ ने साफ किया कि अदालतों को असाधारण मामलों को छोड़कर एकपक्षीय निषेधाज्ञा नहीं देनी चाहिए। ऐसा करने पर मुकदमे की सुनवाई के दौरान प्रतिवादी की तरफ से बचाव में पेश की गई दलीलें निस्संदेह असफल होंगी।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आरोप साबित होने से पहले प्रकाशित होने वाली सामग्री के खिलाफ अंतरिम निषेधाज्ञा, वह भी मुकदमा शुरू होने से पहले ‘मौत की सजा’ की तरह है। न्यायालय ने कहा कि मानहानि के मुकदमों में अंतरिम निषेधाज्ञा देते समय, स्वतंत्र भाषण और सार्वजनिक भागीदारी पर रोक जैसे पहलुओं पर भी ध्यान रखना चाहिए। अदालतों को लंबी मुकदमेबाजी (prolonged litigation) का उपयोग करने की क्षमता पर भी ध्यान देना चाहिए।
शीर्ष अदालत ने कहा कि ट्रायल जज की गलती को उच्च न्यायालय ने भी बरकरार रखा। ट्रायल जज के आदेश में केवल यह दर्ज करना कि ‘निषेधाज्ञा के लिए प्रथम दृष्टया मामला बनता है,’ पर्याप्त नहीं। इसमें सुविधा के संतुलन (balance of convenience) या अपूरणीय कठिनाई (irreparable hardship) को भी अनदेखा किया गया है। ट्रायल जज के सामने तथ्यात्मक आधार और प्रतिवादी की दलीलें पेश करने के बाद ट्रायल जज को यह विश्लेषण करना चाहिए था कि इस मामले में एकपक्षीय निषेधाज्ञा क्यों जरूरी है।
पीठ ने कहा, यह एक मीडिया प्लेटफॉर्म के खिलाफ मानहानि की कार्यवाही में दी गई निषेधाज्ञा का मामला है। संवैधानिक रूप से संरक्षित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर निषेधाज्ञा का गहरा प्रभाव पड़ रहा है। इस कारण निचले अदालत के आदेश में हस्तक्षेप की जरूरत है।